पृष्‍ठभूमि

वैश्विकरण और उदारीकरण के आगमन से पहले, राष्‍ट्र आत्‍मनिर्भर और स्‍वदेशी विकास पर अधिक केन्द्रित था, जिसने प्रौद्योगिकी विकास हेतु देश के उद्देश्‍यों को भी निर्देशित किया । अधिक सीमा शुल्‍क बाधाओं, घरेलू बाजारों में सीमित प्रतिस्‍पर्धा, वैश्विक बाजारों से घटिया समाकलन, निर्यात पर कम दबाव, विदेशी विनिमय के सृजन के बजाय इसके संरक्षण पर अधिक फोकस, सभी ने ऐसा वातावण तैयार किया जहां एस एंड टी अंतराक्षेप आंतरिक थे और आयात प्रतिस्‍थापन, कम विदेशी विनिमय संरक्षण और प्रौद्योगिकी का मूल्‍य एवं स्‍तर पर विचार किए बिना उत्‍पादन जैसे लक्ष्‍य निर्धारित किए गए । इसके परिणामस्‍वरूप देश इन अनुसंधान क्षेत्रों पर व्‍यापक रूप से फोकस करता रहा जहां ज्ञानाधार पहले से उपलब्‍ध था और बाजार मांग मौजूद थी । जबकि यह दृष्टिकोण उन रणनीतिक क्षेत्र (क्षेत्रों) के लिए अधिक उपयुक्‍त था, जहां प्रौद्योगिकियां किसी कीमत पर उपलब्‍ध नहीं थीं अथवा हमें इनसे इनकार किया जाता था; यह प्रतिस्‍पर्धात्‍मक प्रौद्योगिकी विकास के लक्ष्‍यों के लिए अच्‍छा नहीं था । सार्वजनिक अनुसंधान एवं विकास संस्‍थानों ने नए उत्‍पादों के बजाय लागत प्रभावी प्रक्रियाओं पर फोकस करने के साथ रिवर्स इंजीनियरिंग के उद्देश्‍यों को जारी रखा । अस्‍सी के अंत तक भारत द्वारा जारी औद्योगिक विकास मॉडल ने उद्योग के मूल अनुसंधान एवं विकास प्रयास को प्रभावी रूप से बढ़ावा नहीं दिया । परिणामस्‍वरूप भारत से ऐसी किसी एक प्रौद्योगिकी की उत्‍पत्ति प्रारंभ नहीं हुई जो वैश्विक स्‍तर की प्रतिस्‍पर्धा वाली हो । अनुसंधान एवं विकास की अवधारणा में बदलाव 1991 के आर्थिक सुधारों में परिवर्तन के साथ प्रारंभ हुआ और प्रतिमान विस्‍थापन 1995 में डब्‍ल्‍यूटीओ तक भारत की पहुंच से हुआ । तथापि, वैश्विक स्‍तर की प्रतिस्‍पर्धा औद्योगिक प्रौद्योगिकी तक पहुंच बनाना वैश्विक व्‍यापार/अर्थव्यवस्‍था के समाकलन के कारण मुश्किल हो गई । अत: भारतीय उद्योग को बने रहने के लिए ऐसी प्रौद्योगिकी का स्‍वदेशी रूप से विकास करने के अलावा उसके पास कोई विकल्‍प नहीं था । तत्कालीन मौजूदा विशिष्‍ट प्रौद्योगिकी विकास पहलों, होमग्रोन टेक्‍नोलॉजी आदि हेतु उद्योग-संस्‍थान भागीदारी को बढ़ावा देने के लिए अनेक योजनाएं तथा फार्मा उद्योग में अनुसंधान एवं विकास को प्रोत्‍सा‍हन देने के लिए नई स्‍कीम वर्ष 1994 में विकसित की गई ताकि कुछ चिंताओं का समाधान किया जा सके । तथापि, वैश्विक नेतृत्‍व की पोजिशन हासिल करने का कोई लक्ष्‍य नहीं था ।

उत्‍पत्ति

निमितली की उत्‍पत्ति दिनांक 3 जनवरी, 2020 को पुणे में इंडियन साइंस कांग्रेस में माननीय प्रधान मंत्री का भाषण था, जिसमें उन्‍होंने वैज्ञानिक समुदाय से 21वीं सदी भारत की सदी बनाने- इक्‍कीसवी शताब्‍दी भारत की शताब्‍दी के लिए आह्वान किया था । डॉ. आर.ए. माशेलकर तत्‍कालीन महानिदेशक, सीएसआईआर ने दिनांक 17 फरवरी, 2000 को वित्‍त मंत्रालय को वैचारिक नोट प्रस्‍तुत किया था । इसके बाद, माननीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्री ने ऐसा भारतीय विज्ञान, जो अगुवाई करेगा न कि अनुसरण; सृजित करने की चुनौती लेने हेतु वैज्ञानिक समुदाय को (दिनांक 21 फरवरी, 2000 को) प्रोत्‍साहित करके इस विषय पर ज्‍यादा जानकारी दी थी ।

माननीय वित्‍त मंत्री ने निर्धारित कार्रवाई से इसका अनुसरण किया । संसद में बजट-2000 के अपने अभिभाषण में उन्‍होंने कहा कि ‘‘गत माह इंडियन साइंस कांग्रेस में अपने अभिभाषण में प्रधान मंत्री द्वारा की गई कल्‍पना आधुनिक भारत के स्‍वप्‍न को वास्‍तविकता में बदलने के लिए विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी में हमें अपनी संभावना का दोहन करना चाहिए ।..... मैं वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान विभाग को नई सहस्राब्दि भारतीय प्रौद्योगिकी नेतृतव पहल हेतु बजट में 50 करोड़ का प्रावधान कर रहा हूँ । यह उन क्षेत्रों पर फोकस करेगा जो राष्‍ट्रीय उद्देश्‍यों को पूरा करेंगे और यह सरकार एवं निजी क्षेत्र के बीच भागीदारी पर आधारित होगा । इस कार्यक्रम की संकल्‍पना करने, विकसित करने और क्रियान्वित करने की जिम्‍मेदारी वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) को सौंपी गई थी ।

प्रारंभ

सीएसआईआर ने इस कार्यक्रम को विकसित करने में राष्‍ट्रीय परामर्श लिए । इनमें महानिदेशक, सीएसआईआर की ओर से अलग-अलग क्षेत्रों के विभिन्‍न नीति निर्माताओं को भेजे गए 1000 से अधिक पत्र, देश के विभिन्‍न भागों में 65 से अधिक विचारोत्‍तेजक बैठकों का आयोजन, लगभग 10,000 पोस्‍टरों का वितरण आदि सम्मिलित थें । प्राप्‍त प्रतिक्रियाओं और की गई चर्चाओं के आधार पर, सीएसआईआर ने“सार्वजनिक रूप से वित्तपोषित अनुसंधान एवं विकास संस्‍थानों, अकादमियों और निजी उद्योग की श्रेष्‍ठ दक्षताओं के साथ कार्य करते हुए सच्‍ची ‘टीम इंडिया’ भावना में चुनिंदा महत्‍वपूर्ण क्षेत्रों में वैश्विक नेतृत्‍व पोजिशन हासिल करने के लिए नवोन्‍मेष केन्द्रित वैज्ञानिक एवं प्रौद्योगि‍कीय विकासों को उत्‍प्रेरित करने”के लिए एनएमआईटीएलआई के मुख्‍य उद्देश्‍य निर्धारित किए और इसे नवीन विशेषताओं सहित विशिष्‍ट दर्जा दिलवाया ।

नवीन विशेषताएं

निमितली के लिए अपनायी गई रणनीति निवेशों में वृद्धि करने सहित प्रतिकूल जोखिम-निवेश प्रोफाइल अर्थात निम्‍न निवेश- अधिक जोखिम प्रौद्योगिकी क्षेत्र (वैश्विक नेतृत्‍व संभावना सहित) हासिल करना है क्‍योंकि विकास हो रहे हैं तथा जोखिमों में कमी सहित परियोजनाएं नवोन्‍मेष वक्र पर आगे बढ़ रही हैं । अत: परियोजनाएं इस कार्यक्रम को कुछ विभिन्‍न विशेषताओं सहित अलग से स्‍थापित किया गया है । इन विशेषताओं को व्‍यापक पैमाने पर राष्‍ट्रीय परामर्श और समुचित परिश्रम के आधार विकसित की गई हैं । इनमें से कुछ का नीचे संक्षिप्‍त में उल्‍लेख किया गया है :

  1. सक्रिय कार्यक्रम:

    अनुरोधों/आवेदनों के आधार पर किसी परियोजना को वित्‍तपोषण के बजाय इस कार्यक्रम में राष्‍ट्रीय परामर्श के आधार पर विकास हेतु क्षेत्रों को अभिनिर्धा‍रित किया जाता है और विकास में भूमिका निभाने के लिए संस्‍थानों, अकादमियों और निजी क्षेत्र के श्रेष्‍ठ भागीदारों को आमंत्रित किया जाता है:

  2. परियोजनाओं के प्रकार:

    ‘पुश’ और ‘पुल’ दोनों प्रकार की परियोजनाएं निमितली के तहत विकसित की जाती हैं, जिन्‍हें निम्‍नांकित के रूप में उपयुक्‍त नाम दिया गया है (i) राष्‍ट्रीय स्‍तर पर विकसित परियोजनाएं (एनईपी) और (ii) उद्योग जनित परियोजनाएं (आईओपी);

  3. पीपीपी मोड:

    लगभग सभी परियोजनाएं सार्वजनिक-निजी भागीदारी मोड में निर्मित की जाती हैं

  4. परियोजनाएं अभिनिर्धानित करने एवं निर्मित करने पर बल-

    महत्‍वपूर्ण क्षेत्रों का अभिनिर्धारण करने पर अत्‍यधिक बल दिया गया है और देश के श्रेष्‍ठ बुद्धिजीवियों की सहायता से परियोजनाएं निर्मित की जा रही हैं । परियोजनावार विशेष रूप से गठित विशेषज्ञ समूह प्रौद्योगिकी विकास पर फोकस सहित अनेक शोधार्थियों और पणधारियों से संपर्क करके परियोजना निर्मित करता है ।

  5. वैज्ञानिक एवं तकनीकी इनपुट्स-

    उच्‍च स्‍तरीय तकनीकी इनपुट्स परियोजना विकास तथा कार्यान्‍वयन स्‍तर दोनों पर उपलब्‍ध कराया जाता है ।

  6. मॉनीटरिंग एवं समीक्षा प्रणाली-

    दो चरणीय कड़ी मॉनीटरिंग प्रणाली उद्देश्‍यों एवं प्रदेयों को हासिल करना सुनिश्चित करने के लिए प्रारंभ की गई है । प्रथम चरण पर आंतरिक संचालन समिति होती है जिसमें परियोजना कार्यान्‍वयन सम्मिलित होता है (इसकी बैठक 3 माह में एक बार होती है) और द्वितीय स्‍तर पर बाह्य स्‍वतंत्र मॉनीटरिंग समिति होती है जिसमें मान्‍यता प्राप्‍त पीयर्स होते हैं (इसकी बैठक छह माह में कम से कम एक बार होती है) द्वितीय समिति को निम्नांकित की सिफारिश करने की जिम्‍मेदारियां सौंपी जाती है: (i) परियोजना अथवा उप घटक का प्रतिबन्‍ध अथवा आशोधन; (ii)अतिरिक्‍त संस्‍थागत/औद्योगिक भागीदारों का समावेशन जहां आवश्‍यक हो; और (iii) किसी/अथवा सभी कार्यान्‍वयन भागीदारों की वित्तीय सहायता में संशोधन करना;

  7. आई पी मानचित्रण:

    यह कार्यक्रम प्रत्‍येक परियोजना हेतु आईपी परिदृश्‍य के सतत मानचित्रण हेतु और पोर्टफोलियों का निर्माण करने और नेतृत्‍व पोजिशन हासिल करने के विचार सहित आईपी की लाइसेंसिंग उपलब्‍ध कराता है;

  8. परियोजनाओं का प्रतिबंध:

    यह कार्यक्रम नॉनपरफॉर्मिंग अथवा नॉन अचिवेबल परियोजना घटकों पर प्रतिबन्‍ध लगाता है; और

  9. वित्‍तीय सहायता-

    इस कार्यक्रम की नवोन्‍मेषी विशेषता है कि यह इस परियोजना के सभी प्‍लेयर्स को वित्‍तीय सहायता उपलब्‍ध कराता है । यह सहायता सार्वजनिक क्षेत्र के संस्‍थागत भागीदारों को अनुदान सहायता और औद्योगिक भागीदारों को सुलभ ऋण (3% की ब्‍याज दर) के रूप में होती है